संतोषका फल

 

विलायतमें अकाल पड़ गया। लोग भूखों मरने लगे। एक छोटे नगरमें एक धनी दयालु पुरुष थे। उन्होंने सब छोटे लड़कोंको प्रतिदिन एक रोटी देनेकी घोषणा कर दी। दूसरे दिन सबेरे एक बगीचेमें सब लड़के इकट्ठे हुए। उन्हें रोटियाँ बँटने लगीं।


रोटियाँ छोटी-बड़ी थीं। सब बच्चे एक-दूसरेको धक्का देकर बड़ी रोटी पानेका प्रयत्न कर रहे थे। केवल एक छोटी लड़की एक ओर चुपचाप खड़ी थी। वह सबके अन्तमें आगे बढ़ी। टोकरेमें सबसे छोटी अन्तिम रोटी बची थी। उसने उसे प्रसन्नतासे ले लिया और वह घर चली आयी।


दूसरे दिन फिर रोटियाँ बाँटी गयीं। उस लड़कीको आज भी सबसे छोटी रोटी मिली। लड़कीने जब घर लौटकर रोटी तोड़ी तो रोटीमेंसे सोनेकी एक मुहर निकली। उसकी माताने कहा कि–'मुहर उस धनीको दे आओ।' लड़की दौड़ी गयी मुहर देने।


धनीने उसे देखकर पूछा- 'तुम क्यों आयी हो ?' लड़कीने कहा–'मेरी रोटीमें यह मुहर निकली है। आटेमें गिर गयी होगी। देने आयी हूँ। तुम अपनी मुहर ले लो।'


धनीने कहा–'नहीं बेटी! यह तुम्हारे संतोषका पुरस्कार है। लड़कीने सिर हिलाकर कहा–'पर मेरे संतोषका फल तो मुझे तभी मिल गया था। मुझे धक्के नहीं खाने पड़े।'


धनी बहुत प्रसन्न हुआ। उसने उसे अपनी धर्मपुत्री बना लिया और उसकी माताके लिये मासिक वेतन निश्चित कर दिया। वही लड़की उस धनीकी उत्तराधिकारिणी हुई।

Comments