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असभ्य आचार्य

 एक ग्राममें एक लड़का रहता था। उसके पिताने उसे पढ़ने काशी भेज दिया। उसने पढ़नेमें परिश्रम किया। ब्राह्मणका लड़का था, बुद्धि तेज थी। जब वह काशीसे अपने ग्राममें लौटा तब व्याकरणका आचार्य हो गया था। गाँवमें दूसरा कोई पढ़ा-लिखा था नहीं। सब लोग उसका आदर करते थे। इससे उसका घमण्ड बढ़ गया। एक बार उस गाँवमें बारात आयी। बारातमें दो-तीन बूढ़े पण्डित थे। विवाहमें शास्त्रार्थ तो होता ही है। जब सब लोग बैठे, तब शास्त्रार्थकी बारी आयी। सबसे पहले उस घमण्डी लड़केने ही प्रश्न किया । पण्डितोंने धीरेसे उत्तर दे दिया। अब पण्डितोंमें से एकने उससे पूछा- 'असभ्य किसे कहते हैं?' लड़केने बड़े रोबसे उत्तर दिया- 'जो बड़ोंका आदर न करे और उनके सामने उद्दण्ड व्यवहार करे।' 'सम्भवतः आप यह भी मान लेंगे कि असभ्य पुरुषसे बोलनेवाला भी असभ्य ही होता है।' 'निश्चय!' लड़केने बड़े जोशसे स्वीकार किया। 'तब मैं आपसे बोलना बंद करता हूँ।' वृद्ध पण्डित मुसकरा पड़े। 'अर्थात् ?' 'लड़का क्रोधसे लाल हो उठा। 'आपके पूज्य पिता तो वहाँ पीछे बैठे हैं और आप यहाँ डटे हैं। एक बार बुला तो लेना

बगुला उड़ गया

 जापानमें एक साधारण चरवाहा था। उसका नाम था गुसाई। एक दिन वह गायें चरा रहा था। एक बगुला उड़ता आया और उसके पैरोंके पास गिर पड़ा। गुसाईने बगुलेको उठा लिया। सम्भवतः बाजने बगुलेको घायल कर दिया था। उजले पखोंपर रक्तके लाल-लाल बिन्दु थे। बेचारा पक्षी बार-बार मुख फाड़ रहा था। मूसाईने प्यारसे उसपर हाथ फेरा जलके समीप ले जाकर उसके पंख धोये। थोड़ा जल चोंचमें डाल दिया पक्षीमें साहस आया। थोड़ी देर में वह उड़ गया। इसके थोड़े दिन पीछे एक सुन्दर धनवान् लड़कीने गुसाईकी मातासे प्रार्थना की और उससे मुसाईका विवाह हो गया। मूसाई बड़ा प्रसन्न था। उसकी स्त्री बहुत भली थी। वह मूसाई और उसकी माताकी मन लगाकर सेवा करती थी। वह घरका सब काम अपने आप कर लेती थी। गुसाईकी माता तो अपने बेटेकी स्त्री की गाँवभर प्रशंसा ही करती फिरती थी। उसे घरके किसी काममें तनिक भी हाथ नहीं लगाना पड़ता था। भाग्यकी बात- -देशमें अकाल पड़ा। खेतों में कुछ हुआ नहीं। मूसाई मजदूरीकी खोजमें माता तथा स्त्रीके साथ टोकियो नगरमें आया। मजदूरी कहीं जल्दी मिलती है? मूसाईके पासके पैसे खर्च हो गये थे। उसको उपवास करना पड़ा। तब उसकी स्त्रीने कहा-'मैं मलमल बना दूँ

कछुआ गुरु

 एक बूढ़े आदमी थे। गंगा किनारे रहते थे। उन्होंने एक झोपड़ी बना ली थी । झोपड़ीमें एक तख्ता था, जलसे भरा मिट्टीका एक घड़ा रहता था और उन्होंने एक कछुआ पाल रखा था। पासकी बस्तीमें दोपहरमें रोटी माँगने जाते तो थोड़े चने भी माँग लाते। वे कछुएको भीगे चने खिलाया करते थे । एक दिन किसीने पूछा-'आपने यह क्या गंदा जीव पाल रखा है, फेंक दीजिये इसे गंगाजीमें।' बूढ़े बाबा बड़े बिगड़े। वे कहने लगे-" -तुम मेरे गुरु बाबाका अपमान करते हो? देखते नहीं कि तनिक-सी आहट पाकर या किसीके साधारण स्पर्शसे वे अपने सब अंग भीतर खींचकर कैसे गुड़मुड़ी हो जाते हैं। चाहे जितना हिलाओ डुलाओ, वे एक पैरतक न हिलायेंगे । 'इससे क्या हो गया ?' उसने पूछा । 'हो क्यों नहीं गया!' मनुष्यको भी इसी प्रकार सावधान रहना लोभ-लालच और भीड़-भाड़में नेत्र मूंदकर राम-राम करना चाहिये । सच्ची बात तो यह है कि वे किसीको देखते ही भागकर झोपड़ीमें घुस जाते थे और जोर-जोरसे 'राम-राम' बोलने लगते । पुकारनेपर बोलते ही नहीं थे। आज पता नहीं, बोल रहे थे। कैसे उस आदमीने कहा–'चाहे जो हो, यह बड़ा घिनोना दीखता है।' बूढ़े बाबा

मुझे मनुष्य चाहिये

 एक मन्दिर था आसाममें। खूब बड़ा मन्दिर था। उसमें हजारों यात्री दर्शन करने आते थे। सहसा उसका प्रबन्धक प्रधान पुजारी मर गया। मन्दिरके महन्तको दूसरे पुजारीकी आवश्यकता हुई। उन्होंने घोषणा करा दी कि जो कल सबेरे पहले पहर आकर यहाँ पूजासम्बन्धी जाँचमें ठीक सिद्ध होगा, उसे पुजारी रखा जायगा। मन्दिर बड़ा था। पुजारीको बहुत आमदनी थी। बहुत-से ब्राह्मण सबेरे पहुँचनेके लिये चल पड़े। मन्दिर पहाड़ीपर था। एक ही रास्ता था। उसपर भी काँटे और कंकड़-पत्थर थे। ब्राह्मणोंकी भीड़ चली जा रही थी मन्दिरकी ओर किसी प्रकार काँटे और कंकड़ोंसे बचते हुए लोग जा रहे थे। सब ब्राह्मण पहुँच गये। महन्तने सबको आदरपूर्वक बैठाया। सबको भगवान्का प्रसाद मिला। सबसे अलग अलग कुछ प्रश्न और मन्त्र पूछे गये। अन्तमें परीक्षा पूरी हो गयी। जब दोपहर हो गयी और सब लोग उठने लगे तो एक नौजवान ब्राह्मण वहाँ आया। उसके कपड़े फटे थे। वह पसीनेसे भीग गया था और बहुत गरीब जान पड़ता था। महन्तने कहा- 'तुम बहुत देरसे आये!' वह ब्राह्मण बोला- 'मैं जानता हूँ। मैं केवल भगवान्का दर्शन करके लौट जाऊँगा।' महन्त उसकी दशा देखकर दयालु हो रहे थे। बोले- &

बाबाजी गये चोरी करने

एक बाबाजी एक दिन अपने आश्रमसे चले गंगाजी नहाने। बाबाजी धोखेसे आधी रातको ही निकल पड़े थे। रास्ते में उनको चोरोंका एक दल मिला। चोरोंने बाबाजीसे कहा- 'या तो हमारे साथ चोरी करने चलो, नहीं तो मार डालेंगे।' बेचारे बाबाजी क्या करते, उनके साथ हो लिये। चोरोंने एक अच्छे से घरमें सेंध लगायी। एक चोर बाहर रहा और सब भीतर गये। साधु बाबाको भी वे लोग भीतर ले गये। चोर तो लगे संदूक ढूँढ़ने, तिजोरी तोड़ने। बाबाजीने देखा कि एक ओर सिंहासनपर ठाकुरजी विराजमान हैं। उन्होंने सोचा-'आ गये हैं तो हम भी कुछ करें। ये ठाकुरजीकी पूजा करने बैठ गये।' बाबाजीने चन्दन घिसा। धूपबत्ती ठीक की और लगे इधर-उधर भोग ढूँढ़ने वहाँ कुछ प्रसाद था नहीं सोचा, ठाकुरजीके जगनेपर कोई सती-सेवक आ जायगा तो उससे भोग मँगा लेंगे। ठाकुरजी तो रेशमी दुपट्टा ताने सो रहे थे। पूजाके लिये उनको जगाना आवश्यक था। बाबाजीने उठाया शंख और लगे 'धूतूधू' करने । ठाकुरजी तो पता नहीं जगे या नहीं, पर घरके सब सोये लोग चौंककर जाग पड़े। सब चोर सिरपर पैर रखकर भाग खड़े हुए। घरके लोगोंने दौड़कर बाबाजीको पकड़ा। बाबाजीने कहा- 'चिल्लाओ मत ठाकुरजीको भ

पाखण्डका परिणाम

 एक सियार था। एक दिन उसे जंगलमें कुछ खानेको न मिला। बड़ी भूख लगी थी। अन्तमें वह बस्तीमें कुछ खानेकी खोजमें आया। अँधेरी रात थी। लोग सो गये थे। जाड़ेका दिन था। घरोंके दरवाजे बंद थे। सियार गली-गली भटकता फिरा । एक धोबीका घर था। गधे बँधे थे। एक नाँदमें कपड़े भीग रहे थे और एकमें कुछ और था। सियारको गन्ध-सी आयी। सोचा, शायद कुछ पेटमें डालनेको मिल जाय । नाँद ऊँची थी । कूदा और नाँदमें गिर पड़ा। जाड़ेके दिन, रात्रिका समय, ठंडे पानी में गिरनेसे दुर्दशा हो गयी । कूदा और थर-थर काँपता सीधा जंगलकी ओर भागा। प्रातः काल नालेके पानीसे पेट भरने गया । पानीमें छाया देखकर दंग रह गया। रातको वह नीलकी नाँदमें गिर पड़ा था। सूरत बदल गयी थी। बड़ा प्रसन्न हुआ। जंगलमें जानवरोंकी सभा बुलायी, उसने घोषित किया कि 'मैं नीलाकर हूँ। मुझे ब्रह्माने जंगलका राजा बनाकर भेजा है। जो मेरी आज्ञा नहीं मानेगा, उसे बहुत भयंकर दण्ड मिलेगा।' जानवरोंने ऐसे अद्भुत रंगका पशु कहाँ देखा था। उन्होंने सियारकी बात मान ली। वह जंगलका राजा हो गया। सबपर रोब गाँठने लगा। उस सियारने शेरको अपना मन्त्री बनाया, चीतेको सेनापति बनाया। दूसरे पशुओंकी

उपकार

अफ्रीका बड़ा भारी देश है। उस देशमें बहुत घने वन हैं और उन वनोंमें सिंह, भालू, गैंडा आदि भयानक पशु बहुत होते हैं। बहुत से लोग सिंहका चमड़ा पानेके लिये उसे मारते हैं। गरमीके दिनों में हाथी जिस रास्ते झरनेपर पानी पीने जाते हैं, उस रास्तेमें लोग बड़ा भारी गहरा गड्ढा खोद देते हैं और उस गड्ढेके चारों ओर लकड़ियोंको भालेके समान नोंकवाली करके गाड़ देते हैं। फिर गड्ढेको पतली लकड़ियों और पत्तोंसे ढक देते हैं। जब हाथी पानी पीने निकलते हैं तो उनके दलका आगेका हाथी गड्ढेके ऊपर टहनियोंके कारण गड्ढेको देख नहीं पाता और जैसे ही टहनियोंपर पैर रखता है, टहनियाँ टूट जाती हैं और हाथी गड्ढे में गिर जाता है। पीछे हाथी पकड़नेवाले गड्ढेमें एक ओर रास्ता खोदकर दूसरे पालतू हाथियोंकी सहायतासे उस हाथीको पकड़ लाते हैं। हाथी पकड़नेवाले उस हाथीको लाकर पहले कई दिन भूखा रखते हैं। गड्ढेमें भी हाथी कई दिन भूखा रखा जाता है, जिससे कमजोर हो जानेके कारण निकलते समय बहुत धूम न मचावे । भूखके मारे जब हाथी छटपटाने लगता है, तब कोई आदमी उसे चारा देने जाता है। चारा देनेके बहाने वह आदमी हाथीसे धीरे-धीरे जान-पहचान कर लेता है और फिर हाथीको

प्रत्युपकार

शेरकी गुफा थी। खूब गहरी, खूब अँधेरी। उसीमें बिल बनाकर एक छोटी चुहिया भी रहती थी। शेर जो शिकार लाता, उसकी बची हड्डियोंमें लगा मांस चुहियाके लिये बहुत था। शेर जब जंगलमें चला जाता, तब वह बिलसे निकलती और हड्डियोंमें लगे मांसको कुतरकर पेट भर लेती। खूब मोटी हो गयी थी वह । एक दिन शेर दोपहरमें सोया था। चुहियाको भूख लगी। वह बिलसे बाहर निकली और उसने अपना पेट भर लिया। पास रहते-रहते उसका भय दूर हो गया था। पेट भर जानेपर वह शेरके शरीरपर चढ़ गयी। शेरका कोमल चिकना शरीर उसे बहुत पसंद आया। उसे बड़ा आनन्द आया वह उसके पैर, पीठ, गर्दन और मुखपर इधर-से-उधर दौड़ने लगी। इस धमाचौकड़ीमें शेरकी नींद खुल गयी। उसने पंजा उठाकर चुहियाको पकड़ लिया और डाँटा- 'वयों री, मेरे शरीरपर यह क्या ऊधम मचा रखा है तूने ?' चुहियाकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। अब मरी तब मरी। किसी प्रकार काँपते-काँपते बोली- 'महाराज! मुझसे सचमुच बड़ा भारी अपराध हो गया! पर आप समर्थ हैं, यदि मुझे क्षमा करके प्राणदान दे दें तो मैं शक्तिभर आपकी सेवा करूँगी।' शेर हँस पड़ा। उसने चुहियाको छोड़ते हुए कहा- 'जा, तू मेरी सेवा तो क्या करेगी और जंग

उसने रामायण पढ़ी होती

हुएन सांगची लाऊ, यही नाम था उसका। पिता उसे सांग कहते थे। जी चाहे तो आप भी इसी नामसे पुकारिये । उसका पिता शिकारी था। रीछ फँसाता, हिरन मारता और फिर उनके चमड़े बेच डालता। यही रोजगार था बाप-दादोंसे उसके घरका । एक दिन पिताने उसे एक बड़े पेड़की छायामें बैठा दिया और स्वयं बंदूक लेकर एक ओर जंगलमें चला गया । घरमें न माँ है और न कोई भाई-बहिन । इसलिये सूने घरमें उसका मन लगता नहीं था। मास्टरजीकी बेंतके डरसे वह पाठशाला नहीं जाता। दूसरे लड़के पढ़ने चले जाते हैं। भला, गाँवमें किसके साथ खेले ? पिताके साथ रोज जंगलमें जाता है। कभी चिड़ियोंको है, कभी खरगोशके पीछे दौड़ता है। झरबेरी और आडू भी खानेको मिल जाते हैं। वह शिकारीका लड़का है। उसे अकेले जंगलमें दौड़ने और खेलनेमें डर नहीं लगता।  एक दिन पिताके चले जानेपर वह घूम रहा था । एक ओरसे'खों-खों की आवाज आयी। वह देखने दौड़ गया। एक बड़ा सा रीछ कँटीली झाड़ियों में उलझ गया था। बड़े-बड़े बालोंमें काँटे फँसे थे। एक ओरसे काँटे छुड़ाता तो दूसरी ओर उलझ जाते। रीछ घबरा गया था। लड़केको दया आ गयी। वह पास चला गया। उसने काँटे छुड़ाकर रीछको छुटकारा दे दिया।  रीछ बड़े जोरस

रीछ की समझदारी

 वह शिकार खेलने गया था। लम्बी मारकी बंदूक थी और कन्धेपर कारतूसोंकी पेटी पड़ी थी। सामने ऊँचा पर्वत दूरतक चला गया था। पर्वतसे लगा हुआ खड्डा था, कई हजार फीट गहरा । पतली-सी पगडंडी पर्वतके बीचसे खड्डेड्के उस पारतक जाती थी। उस पार जंगली बेर हैं और इस समय खूब पके हैं। वह जानता था कि रीछ बेर खाने जाते होंगे। उसने देखा, एक छोटा रीछ इस पारसे पगडंडीपर होकर उस पार जा रहा है । गोली मारनेसे रीछ खड्ढेमें गिर पड़ेगा। कोई लाभ न देखकर वह चुपचाप खड़ा रहा। दूरबीन लगाते ही उसने देखा कि उस पारसे उसी पगडंडीपर दूसरा बड़ा रीछ इस पारको आ रहा है । 'दोनों लड़ेंगे और खड्ढेमें गिरकर मर जायँगे।' वह अपने आप बड़बड़ाया। पगडंडी इतनी पतली थी कि उसपरसे न तो पीछे लौटना सम्भव था और न दो-एक साथ निकल सकते थे। वह गौरसे देखने लगा। 'एकको गोली मार दूँ, लेकिन दूसरा चौंक जायगा और चौंकते ही वह भी गिर जायगा।' देखनेके सिवा कोई रास्ता नहीं। दोनों रीछ आमने-सामने हुए। पता नहीं, क्या वाद विवाद करने लगे अपनी भाषामें। पाँच मिनटमें ही उनका भलभलाना बंद हो गया और शिकारीने देखा कि बड़ा रीछ चुपचाप जैसे था, वैसे ही बैठ गया। छोटा उ

जैसा संग वैसा रंग

 एक बाजार में एक तोता बेचनेवाला आया। उसके पास दो पिंजड़े थे। दोनॉमें एक-एक तोता था। उसने एक तोतेका मूल्य रखा था- पाँच सौ रुपये और एकका रखा था पाँच आने पैसे। वह कहता था कि 'कोई पहले पाँच आनेवालेको लेना चाहे तो ले जाय, लेकिन कोई पहले पाँच सौ रुपयेवालेको लेना चाहेगा तो उसे दूसरा भी लेना पड़ेगा।' वहाँके राजा बाजारमें आये। तोतेवालेकी पुकार सुनकर उन्होंने हाथी रोककर पूछा-'इन दोनोंके मूल्योंमें इतना अन्तर है?' तोतेवालेने कहा – 'यह तो आप इनको ले जायँ तो अपने-आप पता लग जायगा ।' राजाने तोते ले लिये। जब रातमें वे सोने लगे तो उन्होंने कहा कि 'पाँच सौ रुपयेवाले तोतेका पिंजड़ा मेरे पलंगके पास टाँग दिया जाय।' जैसे ही प्रातः चार बजे, तोतेने कहना आरम्भ किया—'राम, राम, सीता राम!' तोतेने खूब सुन्दर भजन गाये । सुन्दर श्लोक पढ़े। राजा बहुत प्रसन्न हुए। दूसरे दिन उन्होंने दूसरे तोतेका पिंजड़ा पास रखवाया। जैसे ही सबेरा हुआ, उस तोतेने गंदी-गंदी गालियाँ बकनी आरम्भ कीं। राजाको बड़ा क्रोध आया। उन्होंने नौकरसे कहा- 'इस दुष्टको मार डालो ।' पहला तोता पास ही था। उसने न

मेल का फल

अपने देशमें ऐसे बहुत-से नगर और गाँव हैं, जहाँ बहुत थोड़े पेड़ हैं। यदि वहाँ गाय-बैल भी कम हों और गोबर थोड़ा हो तो रसोई बनानेके लिये लकड़ी या उपले बड़ी कठिनाईसे मिलते हैं। एक छोटा-सा बाजार था। उसके आस-पास पेड़ कम थे और बाजारमें किसानोंके घर न होनेसे गाय-बैल भी थोड़े थे। जलानेके लिये लकड़ी और उपले वहाँके लोगोंको खरीदना पड़ता था। दो-तीन दिन वर्षा हुई थी, इसीसे गाँवोंसे कोई मजदूर बाजारमें लकड़ी या उपला बेचने नहीं आया था। इससे कई घरोंमें रसोई बनानेको ईंधन ही नहीं बचा था। उस गाँवके दो लड़के, जो सगे भाई थे, अपने घरके लिये सूखी लकड़ी ढूँढ़ने निकले। उनके पिता घरपर नहीं थे। उनकी माता बिना सूखी लकड़ीके कैसे रोटी बनाती और कैसे अपने लड़कोंको खिलाती। दोनों लड़के अपने पिताके लगाये आमके पेड़के नीचे गये। वहाँ उन्होंने देखा कि आमकी एक मोटी सूखी डाल आँधीसे टूटकर नीचे गिरी है। बड़े लड़केने कहा—'लकड़ी तो मिल गयी, लेकिन हमलोग इसे कैसे ले जायेंगे?' छोटेने कहा-'हम इसे छोड़कर जायँगे तो कोई दूसरा उठा ले जायगा।' लेकिन वे क्या करते। बड़ा दस वर्षका था और छोटा साढ़े आठ वर्षका। इतनी बड़ी लकड़ी उनसे उठ न

भूल का फल

रातमें वर्षा हुई थी। सबेरे रोजसे अधिक चमकीली धूप निकली। बकरीके बच्चेने माँका दूध पिया, भर पेट पिया। फिर घास सूँघकर फुदका। गीली नम भूमिपर उसे कूदनेमें बड़ा मजा आया और वह चौकड़ियाँ भरने लगा। पहले माताके समीप उछलता रहा और फिर जब कानोंमें वायु भर गयी तो दूरकी सूझी। माँ ने कहा- 'बेटा! दूर मत जा कहीं जंगलमें भटक जायगा।' वह थोड़ी दूर निकल गया था। उसने वहींसे कह दिया- 'मैं थोड़ी देरमें खेल-कूदकर लौट आऊँगा। तू मेरी चिन्ता मत कर। मैं रास्ता नहीं भूलूँगा।' माता मना करती रही, लेकिन वह तो दूर जा चुका था। उसे अपनी समझपर अभिमान था और माताके मना करनेपर उसे झुंझलाहट भी आयी थी। वह कूदनेमें मस्त था। चौकड़ी लगानेमें उसे रास्तेका पता ही नहीं रहा। उसने जंगलको देखा और यह सोचकर कि थोड़ी दूरतक आज जंगल भी देख लूँ, आगे बढ़ गया। सचमुच वह जंगलमें भटक गया और इसका पता उसे तब लगा, जब वह कूदते-उछलते थक गया। जब उसने लौटना चाहा तो उसे रास्तेका पता ही नहीं था। वह कैटीली घनी झाड़ियों के बीच रास्ता ढूढ़ने के लिये भटकता ही रहा। 'अरे, तू तो बहुत अच्छा आया। मुझे तीन दिनसे भोजन नहीं मिला है।' पासकी झाड़ीसे एक बड़

शेर का थप्पड़

 एक ब्राह्मण देवता थे। बड़े गरीब और सीधे थे। देशमें अकाल पड़ा। अब भला ब्राह्मणको कौन सीधा दे और कौन उनसे पूजा पाठ करावे। बेचारे ब्राह्मणको कई दिनांतक भोजन नहीं मिला। ब्राहाणने सोचा-'भूख से मरनेसे तो प्राण दे देना ठीक है।' वे जंगल में मरनेके विचार से गये। मरने के पहले उन्होंने शुद्ध हृदयसे भगवान् का नाम लिया और प्रार्थना की। इतनेमें एक शेर दिखायी पड़ा। ब्राह्मणने कहा 'मैं तो मरने आया ही था। यह मुझे खा ले तो अच्छा।' शेरने पास आकर पूछा 'तू डरता क्यों नहीं ?' ब्राहाणने सब बातें बताकर कहा- 'अब तुम मुझे झटपट मारकर खा डालो।' सच्ची बात यह थी कि उस वनके देवताको ब्राह्मणपर दया आ गयी थी। वही शेर बनकर आया था। उसने ब्राहाणको पाँच सौ अशर्फियाँ दीं। ब्राह्मण घर लौट आया सबेरे जब ब्राह्मण अशफ़ी लेकर वहाँके बनियेसे आटा दाल खरीदने गया तब बनियेने पूछा कि असर्फी कहाँ मिली? ब्राह्मणने सच्ची बात बता दी और वह आटा चावल आदि लेकर घर आ गया। बनिया बड़ा लोभी था। वह रातको अशर्कियाँके लोभसे वनमें गया। उसने भी जीभसे भगवान्‌का नाम लिया और प्रार्थना की। शेर आया। बनियेने कहा- 'तुम झटपट मु

दया की महिमा

एक बहेलिया था। चिड़ियोंको जालमें या गोंद लगे बड़े भारी बाँसमें फँसा लेना और उन्हें बेच डालना ही उसका काम था। चिड़ियोंको बेचकर उसे जो पैसे मिलते थे, उसीसे उसका काम चलता था। एक दिन वह बहेलिया अपनी चद्दर एक पेड़के नीचे रखकर अपना बड़ा भारी बाँस लिये किसी चिड़ियाके पेड़ पर आकर बैठनेकी राह देखता बैठा था। इतनेमें एक टिटिहरी चिल्लाती दौड़ी आयी और बहेलियेकी चद्दरमें छिप गयी । टिटिहरी ऐसी चिड़िया नहीं होती कि उसे कोई पालनेके लिये खरीदे। बहेलिया उठा और उसने सोचा कि अपनी चद्दरमेंसे टिटिहरीको भगा देना चाहिये । इसी समय वहाँ ऊपर उड़ता एक बाज दिखायी पड़ा। बहेलिया समझ गया कि यह बाज टिटिहरीको पकड़कर खा जानेके लिये झपटा होगा, इसीसे टिटिहरी डरकर मेरी चद्दरमें छिपी है। बहेलियेके मनमें टिटिहरीपर दया आ गयी। उसने ढेले मारकर बाजको वहाँसे भगा दिया। बाजके चले जानेपर टिटिहरी चद्दरसे निकलकर चली गयी। कुछ दिनों पीछे बहेलिया बीमार हुआ और मर गया । यमराजके दूत उसे पकड़कर यमपुरी ले गये। यमपुरीमें कहीं आग जल रही थी, कहीं चूल्हेपर बड़े भारी कड़ाहेमें तेल उबल रहा था। पापी लोग आगमें भूने जाते थे, तेलमें उबाले जाते थे। यमराजक

स्वाधीनता का सुख

  एक दिन एक ऊँट किसी प्रकार अपने मालिकसे नकेल छुड़ाकर भाग खड़ा हुआ। वह भागा, भागा और सीधे पश्चिम भागता गया, वहाँतक जहाँ रास्तमें एक नदी आ गयी। अब आगे भागनेका रास्ता बंद हो गया। वह रास्तेमें हरे-भरे खेत, पत्तेभरी झाड़ियाँ और खूब घने नीमके पेड़ छोड़ आया था । वह चाहता तो अपनी ऊँची गर्दन उठाकर पत्तियोंसे पेट भर लेता, लेकिन वह वहाँसे दूर भाग आया था। सामने चौड़ी गहरी धारा बह रही थी। पीछे ऊँचा कगार खड़ा था और दोनों ओर दूरतक रेत-ही-रेत थी। कहीं हरियालीका नामतक नहीं था। बेचारा ऊँट वहाँ आकर खड़ा हो गया और जब थक गया तो बैठ गया। वह डरके मारे बलबला भी नहीं सकता था। कहीं ऊँटवाला आकर उसे पकड़ न ले। उसे खूब भूख लगी थी, लेकिन पानीके सिवा वहाँ था भी क्या । वह लाचार था । दो-तीन दिन बीत गये। भूखसे ऊँट अधमरा हो गया। उसी समय एक कौआ आया। उसे ऊँटकी दशापर दया आ गयी । उसने कहा – 'ऊँट भाई! मैं उड़ता हूँ, तुम मेरे पीछे चलो। मैं तुम्हें हरे खेततक पहुँचा दूँगा।' ऊँट बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने कौएको धन्यवाद दिया। चलनेको तैयार हो गया। उसी समय उसे याद आया और उसने पूछा – 'भाई! उस खेतमें कभी आदमी तो नहीं आता ?

जैसे को तैसा

भैंस और घोड़े में लड़ाई हो गयी। दोनों एक ही जंगलमें रहते थे। पास-पास चरते थे और एक ही रास्ते से जाकर एक ही झरने का पानी पीते थे। एक दिन दोनों लड़ पड़े। भैंस ने सींग मार-मार कर घोड़े को अधमरा कर दिया। घोड़ेने जब देख लिया कि वह भैंससे जीत नहीं सकता, तब वह वहाँसे भागा । वह मनुष्यके पास पहुँचा। घोड़ेने उससे अपनी सहायता करनेकी प्रार्थना की। मनुष्यने कहा – भैंसके बड़े-बड़े सींग हैं। वह बहुत बलवान् है, मैं उसे कैसे जीत सकूँगा। घोड़ेने समझाया – मेरी पीठपर बैठ जाओ। एक मोटा डंडा ले लो। मैं जल्दी-जल्दी दौड़ता रहूँगा। तुम डंडेसे मार-मारकर भैंसको अधमरी कर देना और फिर रस्सीसे बाँध लेना । मनुष्यने कहा – मैं उसे बाँधकर भला क्या करूँगा?  घोड़ेने बताया- भैंस बड़ा मीठा दूध देती है। तुम उसे पी लिया करना । मनुष्यने घोड़ेकी बात मान ली। बेचारी भैंस जब पिटते-पिटते गिर पड़ी, तब मनुष्यने उसे बाँध लिया। घोड़ेने काम समाप्त होनेपर कहा – अब मुझे छोड़ दो। मैं चरने जाऊँगा।  मनुष्य जोर-जोरसे हँसने लगा। उसने कहा- मैं तुमको भी बाँधे देता हूँ। मैं नहीं जानता था कि तुम मेरे चढ़नेके काम आ सकते हो। मैं भैंसका दूध पीऊँगा और

अधम बालक

वर्षाके दिन थे। तालाब लबालब भरा हुआ था। मेढक किनारेपर बैठे एक स्वरसे टर्र-टर्र कर रहे थे। कुछ लड़के स्नान करने लगे। वे पानीमें कूदे और तैरने लगे। उनमेंसे एकने पत्थर उठाया और एक मेढकको दे मारा। मेढक कूदकर पानीमें चला गया। मेढकका कूदना देखकर लड़केको बड़ा मजा आया। वह बार-बार मेढकको पत्थर मारने और उन्हें कूदते देखकर हँसने लगा । पत्थर लगनेसे बेचारे मेढकको चोट लगती थी। उनको मनुष्यकी भाषा बोलनी आती तो अवश्य वे लड़केसे प्रार्थना करते और शायद उसे गाली भी देते। लेकिन बेचारे क्या करें। चोट लगती थी और प्राण बचानेके लिये वे पानीमें कूद जाते थे। अपनी पीड़ाको सह लेनेके सिवा उनके पास कोई उपाय ही नहीं था । लड़का नहीं जानता था कि इस प्रकार खेलमें मेढकोंको पत्थर मारना या कीड़े-मकोड़े, पतिंगे आदिको तंग करना अथवा उनकी जान ले लेना बहुत बड़ा पाप है। जो पाप करता है, उसे बहुत दुःख भोगना पड़ता है और मरनेके बाद यमराजके दूत उसे पकड़कर नरकमें ले जाते हैं। वहाँ उसे बड़े-बड़े कष्ट भोगने पड़ते हैं। लड़केको तो मेढकोंको पत्थर मारना खेल जान पड़ता था। वह उन्हें बार-बार पत्थर मारता ही जाता था । 'इसे पकड़ ले चलो।'

भगवान् का भरोसा

जाड़ेका दिन था और शाम हो गयी थी। आसमानमें बादल छाये थे। एक नीमके पेड़पर बहुत से कौए बैठे थे। वे सब बार-बार काँव-काँव कर रहे थे और एक-दूसरेसे झगड़ भी रहे थे। इसी समय एक छोटी मैना आयी और उसी नीमके पेड़की एक डालपर बैठ गयी। मैनाको देखते ही कई कौए उसपर टूट पड़े। बेचारी मैनाने कहा – 'बादल बहुत हैं, इसलिये आज जल्दी अँधेरा हो गया है। मैं अपना घोसला भूल गयी हूँ। मुझे आज रात यहाँ बैठे रहने दो।' कौओंने कहा—'नहीं, यह पेड़ हमारा है। तू यहाँसे भाग जा।' मैना बोली –'पेड़ तो सब भगवान्‌के हैं। इस सर्दीमें यदि वर्षा हुई और ओले पड़े तो भगवान् ही हमलोगोंके प्राण बचा सकते हैं। मैं बहुत छोटी हूँ, तुम्हारी बहिन हूँ, मुझपर तुमलोग दया करो और मुझे भी यहाँ बैठने दो।' कौओंने कहा – 'हमें तेरी जैसी बहिन नहीं चाहिये । तू बहुत भगवान्‌का नाम लेती है तो भगवान्‌के भरोसे यहाँसे चली क्यों नहीं जाती? तू नहीं जायगी तो हम सब तुझे मारेंगे।' कौए तो झगड़ालू होते ही हैं, वे शामको जब पेड़पर बैठने लगते हैं, तब आपसमें झगड़ा किये बिना उनसे रहा नहीं जाता। वे एक-दूसरेको मारते हैं और काँव-काँव करके झगड़ते ह