Posts

प्रत्युपकार

शेरकी गुफा थी। खूब गहरी, खूब अँधेरी। उसीमें बिल बनाकर एक छोटी चुहिया भी रहती थी। शेर जो शिकार लाता, उसकी बची हड्डियोंमें लगा मांस चुहियाके लिये बहुत था। शेर जब जंगलमें चला जाता, तब वह बिलसे निकलती और हड्डियोंमें लगे मांसको कुतरकर पेट भर लेती। खूब मोटी हो गयी थी वह । एक दिन शेर दोपहरमें सोया था। चुहियाको भूख लगी। वह बिलसे बाहर निकली और उसने अपना पेट भर लिया। पास रहते-रहते उसका भय दूर हो गया था। पेट भर जानेपर वह शेरके शरीरपर चढ़ गयी। शेरका कोमल चिकना शरीर उसे बहुत पसंद आया। उसे बड़ा आनन्द आया वह उसके पैर, पीठ, गर्दन और मुखपर इधर-से-उधर दौड़ने लगी। इस धमाचौकड़ीमें शेरकी नींद खुल गयी। उसने पंजा उठाकर चुहियाको पकड़ लिया और डाँटा- 'वयों री, मेरे शरीरपर यह क्या ऊधम मचा रखा है तूने ?' चुहियाकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। अब मरी तब मरी। किसी प्रकार काँपते-काँपते बोली- 'महाराज! मुझसे सचमुच बड़ा भारी अपराध हो गया! पर आप समर्थ हैं, यदि मुझे क्षमा करके प्राणदान दे दें तो मैं शक्तिभर आपकी सेवा करूँगी।' शेर हँस पड़ा। उसने चुहियाको छोड़ते हुए कहा- 'जा, तू मेरी सेवा तो क्या करेगी और जंग

उसने रामायण पढ़ी होती

हुएन सांगची लाऊ, यही नाम था उसका। पिता उसे सांग कहते थे। जी चाहे तो आप भी इसी नामसे पुकारिये । उसका पिता शिकारी था। रीछ फँसाता, हिरन मारता और फिर उनके चमड़े बेच डालता। यही रोजगार था बाप-दादोंसे उसके घरका । एक दिन पिताने उसे एक बड़े पेड़की छायामें बैठा दिया और स्वयं बंदूक लेकर एक ओर जंगलमें चला गया । घरमें न माँ है और न कोई भाई-बहिन । इसलिये सूने घरमें उसका मन लगता नहीं था। मास्टरजीकी बेंतके डरसे वह पाठशाला नहीं जाता। दूसरे लड़के पढ़ने चले जाते हैं। भला, गाँवमें किसके साथ खेले ? पिताके साथ रोज जंगलमें जाता है। कभी चिड़ियोंको है, कभी खरगोशके पीछे दौड़ता है। झरबेरी और आडू भी खानेको मिल जाते हैं। वह शिकारीका लड़का है। उसे अकेले जंगलमें दौड़ने और खेलनेमें डर नहीं लगता।  एक दिन पिताके चले जानेपर वह घूम रहा था । एक ओरसे'खों-खों की आवाज आयी। वह देखने दौड़ गया। एक बड़ा सा रीछ कँटीली झाड़ियों में उलझ गया था। बड़े-बड़े बालोंमें काँटे फँसे थे। एक ओरसे काँटे छुड़ाता तो दूसरी ओर उलझ जाते। रीछ घबरा गया था। लड़केको दया आ गयी। वह पास चला गया। उसने काँटे छुड़ाकर रीछको छुटकारा दे दिया।  रीछ बड़े जोरस

रीछ की समझदारी

 वह शिकार खेलने गया था। लम्बी मारकी बंदूक थी और कन्धेपर कारतूसोंकी पेटी पड़ी थी। सामने ऊँचा पर्वत दूरतक चला गया था। पर्वतसे लगा हुआ खड्डा था, कई हजार फीट गहरा । पतली-सी पगडंडी पर्वतके बीचसे खड्डेड्के उस पारतक जाती थी। उस पार जंगली बेर हैं और इस समय खूब पके हैं। वह जानता था कि रीछ बेर खाने जाते होंगे। उसने देखा, एक छोटा रीछ इस पारसे पगडंडीपर होकर उस पार जा रहा है । गोली मारनेसे रीछ खड्ढेमें गिर पड़ेगा। कोई लाभ न देखकर वह चुपचाप खड़ा रहा। दूरबीन लगाते ही उसने देखा कि उस पारसे उसी पगडंडीपर दूसरा बड़ा रीछ इस पारको आ रहा है । 'दोनों लड़ेंगे और खड्ढेमें गिरकर मर जायँगे।' वह अपने आप बड़बड़ाया। पगडंडी इतनी पतली थी कि उसपरसे न तो पीछे लौटना सम्भव था और न दो-एक साथ निकल सकते थे। वह गौरसे देखने लगा। 'एकको गोली मार दूँ, लेकिन दूसरा चौंक जायगा और चौंकते ही वह भी गिर जायगा।' देखनेके सिवा कोई रास्ता नहीं। दोनों रीछ आमने-सामने हुए। पता नहीं, क्या वाद विवाद करने लगे अपनी भाषामें। पाँच मिनटमें ही उनका भलभलाना बंद हो गया और शिकारीने देखा कि बड़ा रीछ चुपचाप जैसे था, वैसे ही बैठ गया। छोटा उ

जैसा संग वैसा रंग

 एक बाजार में एक तोता बेचनेवाला आया। उसके पास दो पिंजड़े थे। दोनॉमें एक-एक तोता था। उसने एक तोतेका मूल्य रखा था- पाँच सौ रुपये और एकका रखा था पाँच आने पैसे। वह कहता था कि 'कोई पहले पाँच आनेवालेको लेना चाहे तो ले जाय, लेकिन कोई पहले पाँच सौ रुपयेवालेको लेना चाहेगा तो उसे दूसरा भी लेना पड़ेगा।' वहाँके राजा बाजारमें आये। तोतेवालेकी पुकार सुनकर उन्होंने हाथी रोककर पूछा-'इन दोनोंके मूल्योंमें इतना अन्तर है?' तोतेवालेने कहा – 'यह तो आप इनको ले जायँ तो अपने-आप पता लग जायगा ।' राजाने तोते ले लिये। जब रातमें वे सोने लगे तो उन्होंने कहा कि 'पाँच सौ रुपयेवाले तोतेका पिंजड़ा मेरे पलंगके पास टाँग दिया जाय।' जैसे ही प्रातः चार बजे, तोतेने कहना आरम्भ किया—'राम, राम, सीता राम!' तोतेने खूब सुन्दर भजन गाये । सुन्दर श्लोक पढ़े। राजा बहुत प्रसन्न हुए। दूसरे दिन उन्होंने दूसरे तोतेका पिंजड़ा पास रखवाया। जैसे ही सबेरा हुआ, उस तोतेने गंदी-गंदी गालियाँ बकनी आरम्भ कीं। राजाको बड़ा क्रोध आया। उन्होंने नौकरसे कहा- 'इस दुष्टको मार डालो ।' पहला तोता पास ही था। उसने न

मेल का फल

अपने देशमें ऐसे बहुत-से नगर और गाँव हैं, जहाँ बहुत थोड़े पेड़ हैं। यदि वहाँ गाय-बैल भी कम हों और गोबर थोड़ा हो तो रसोई बनानेके लिये लकड़ी या उपले बड़ी कठिनाईसे मिलते हैं। एक छोटा-सा बाजार था। उसके आस-पास पेड़ कम थे और बाजारमें किसानोंके घर न होनेसे गाय-बैल भी थोड़े थे। जलानेके लिये लकड़ी और उपले वहाँके लोगोंको खरीदना पड़ता था। दो-तीन दिन वर्षा हुई थी, इसीसे गाँवोंसे कोई मजदूर बाजारमें लकड़ी या उपला बेचने नहीं आया था। इससे कई घरोंमें रसोई बनानेको ईंधन ही नहीं बचा था। उस गाँवके दो लड़के, जो सगे भाई थे, अपने घरके लिये सूखी लकड़ी ढूँढ़ने निकले। उनके पिता घरपर नहीं थे। उनकी माता बिना सूखी लकड़ीके कैसे रोटी बनाती और कैसे अपने लड़कोंको खिलाती। दोनों लड़के अपने पिताके लगाये आमके पेड़के नीचे गये। वहाँ उन्होंने देखा कि आमकी एक मोटी सूखी डाल आँधीसे टूटकर नीचे गिरी है। बड़े लड़केने कहा—'लकड़ी तो मिल गयी, लेकिन हमलोग इसे कैसे ले जायेंगे?' छोटेने कहा-'हम इसे छोड़कर जायँगे तो कोई दूसरा उठा ले जायगा।' लेकिन वे क्या करते। बड़ा दस वर्षका था और छोटा साढ़े आठ वर्षका। इतनी बड़ी लकड़ी उनसे उठ न

भूल का फल

रातमें वर्षा हुई थी। सबेरे रोजसे अधिक चमकीली धूप निकली। बकरीके बच्चेने माँका दूध पिया, भर पेट पिया। फिर घास सूँघकर फुदका। गीली नम भूमिपर उसे कूदनेमें बड़ा मजा आया और वह चौकड़ियाँ भरने लगा। पहले माताके समीप उछलता रहा और फिर जब कानोंमें वायु भर गयी तो दूरकी सूझी। माँ ने कहा- 'बेटा! दूर मत जा कहीं जंगलमें भटक जायगा।' वह थोड़ी दूर निकल गया था। उसने वहींसे कह दिया- 'मैं थोड़ी देरमें खेल-कूदकर लौट आऊँगा। तू मेरी चिन्ता मत कर। मैं रास्ता नहीं भूलूँगा।' माता मना करती रही, लेकिन वह तो दूर जा चुका था। उसे अपनी समझपर अभिमान था और माताके मना करनेपर उसे झुंझलाहट भी आयी थी। वह कूदनेमें मस्त था। चौकड़ी लगानेमें उसे रास्तेका पता ही नहीं रहा। उसने जंगलको देखा और यह सोचकर कि थोड़ी दूरतक आज जंगल भी देख लूँ, आगे बढ़ गया। सचमुच वह जंगलमें भटक गया और इसका पता उसे तब लगा, जब वह कूदते-उछलते थक गया। जब उसने लौटना चाहा तो उसे रास्तेका पता ही नहीं था। वह कैटीली घनी झाड़ियों के बीच रास्ता ढूढ़ने के लिये भटकता ही रहा। 'अरे, तू तो बहुत अच्छा आया। मुझे तीन दिनसे भोजन नहीं मिला है।' पासकी झाड़ीसे एक बड़

शेर का थप्पड़

 एक ब्राह्मण देवता थे। बड़े गरीब और सीधे थे। देशमें अकाल पड़ा। अब भला ब्राह्मणको कौन सीधा दे और कौन उनसे पूजा पाठ करावे। बेचारे ब्राह्मणको कई दिनांतक भोजन नहीं मिला। ब्राहाणने सोचा-'भूख से मरनेसे तो प्राण दे देना ठीक है।' वे जंगल में मरनेके विचार से गये। मरने के पहले उन्होंने शुद्ध हृदयसे भगवान् का नाम लिया और प्रार्थना की। इतनेमें एक शेर दिखायी पड़ा। ब्राह्मणने कहा 'मैं तो मरने आया ही था। यह मुझे खा ले तो अच्छा।' शेरने पास आकर पूछा 'तू डरता क्यों नहीं ?' ब्राहाणने सब बातें बताकर कहा- 'अब तुम मुझे झटपट मारकर खा डालो।' सच्ची बात यह थी कि उस वनके देवताको ब्राह्मणपर दया आ गयी थी। वही शेर बनकर आया था। उसने ब्राहाणको पाँच सौ अशर्फियाँ दीं। ब्राह्मण घर लौट आया सबेरे जब ब्राह्मण अशफ़ी लेकर वहाँके बनियेसे आटा दाल खरीदने गया तब बनियेने पूछा कि असर्फी कहाँ मिली? ब्राह्मणने सच्ची बात बता दी और वह आटा चावल आदि लेकर घर आ गया। बनिया बड़ा लोभी था। वह रातको अशर्कियाँके लोभसे वनमें गया। उसने भी जीभसे भगवान्‌का नाम लिया और प्रार्थना की। शेर आया। बनियेने कहा- 'तुम झटपट मु