प्रत्युपकार
शेरकी गुफा थी। खूब गहरी, खूब अँधेरी। उसीमें बिल बनाकर एक छोटी चुहिया भी रहती थी। शेर जो शिकार लाता, उसकी बची हड्डियोंमें लगा मांस चुहियाके लिये बहुत था। शेर जब जंगलमें चला जाता, तब वह बिलसे निकलती और हड्डियोंमें लगे मांसको कुतरकर पेट भर लेती। खूब मोटी हो गयी थी वह । एक दिन शेर दोपहरमें सोया था। चुहियाको भूख लगी। वह बिलसे बाहर निकली और उसने अपना पेट भर लिया। पास रहते-रहते उसका भय दूर हो गया था। पेट भर जानेपर वह शेरके शरीरपर चढ़ गयी। शेरका कोमल चिकना शरीर उसे बहुत पसंद आया। उसे बड़ा आनन्द आया वह उसके पैर, पीठ, गर्दन और मुखपर इधर-से-उधर दौड़ने लगी। इस धमाचौकड़ीमें शेरकी नींद खुल गयी। उसने पंजा उठाकर चुहियाको पकड़ लिया और डाँटा- 'वयों री, मेरे शरीरपर यह क्या ऊधम मचा रखा है तूने ?' चुहियाकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। अब मरी तब मरी। किसी प्रकार काँपते-काँपते बोली- 'महाराज! मुझसे सचमुच बड़ा भारी अपराध हो गया! पर आप समर्थ हैं, यदि मुझे क्षमा करके प्राणदान दे दें तो मैं शक्तिभर आपकी सेवा करूँगी।' शेर हँस पड़ा। उसने चुहियाको छोड़ते हुए कहा- 'जा, तू मेरी सेवा तो क्या करेगी और जंग