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सत्य बोलो

 एक डाकू था । डाके डालता, लोगोंको मारता और उनके रुपये, बर्तन, कपड़े, गहने लेकर चम्पत हो जाता। पता नहीं, कितने लोगोंको उसने मारा। पता नहीं कितने पाप किये। एक स्थानपर कथा हो रही थी। कोई साधु कथा कह रहे थे। बड़े-बड़े लोग आये थे। डाकू भी गया। उसने सोचा 'कथा समाप्त होनेपर रात्रि हो जायगी। कथामेंसे जो बड़े आदमी घर लौटेंगे, उनमें से किसीको मौका देखकर लूट लूँगा।' कोई कैसा भी हो, वह जैसे समाजमें जाता है, उस समाजका प्रभाव उसपर अवश्य पड़ता है। भगवान् की कथा और सत्संगमें थोड़ी देर बैठने या वहाँ कुछ देरको किसी दूसरे बहानेसे जानेमें भी लाभ ही होता है। उस कथा-सत्संगका मनपर कुछ-न-कुछ प्रभाव अवश्य पड़ता है। कथा सुनकर उसको लगा कि साधु तो बड़े अच्छे हैं। उसे कथा सुनकर मृत्युका डर लगा था। और मरनेपर पापोंका दण्ड मिलेगा, यह सुनकर वह घबरा गया था। वह साधुके पास गया। 'महाराज! मैं डाकू हूँ। डाका डालना तो मुझसे छूट नहीं सकता। क्या मेरे भी उद्धारका कोई उपाय है? उसने साधुसे पूछा। साधुने सोचकर कहा–'तुम झूठ बोलना छोड़ दो ।' डाकूने स्वीकार कर लिया और लौट पड़ा। कथासे लौटनेवाले घर चले गये थे। डाकूने

बगुला उड़ गया

 जापानमें एक साधारण चरवाहा था। उसका नाम था गुसाई। एक दिन वह गायें चरा रहा था। एक बगुला उड़ता आया और उसके पैरोंके पास गिर पड़ा। गुसाईने बगुलेको उठा लिया। सम्भवतः बाजने बगुलेको घायल कर दिया था। उजले पखोंपर रक्तके लाल-लाल बिन्दु थे। बेचारा पक्षी बार-बार मुख फाड़ रहा था। मूसाईने प्यारसे उसपर हाथ फेरा जलके समीप ले जाकर उसके पंख धोये। थोड़ा जल चोंचमें डाल दिया पक्षीमें साहस आया। थोड़ी देर में वह उड़ गया। इसके थोड़े दिन पीछे एक सुन्दर धनवान् लड़कीने गुसाईकी मातासे प्रार्थना की और उससे मुसाईका विवाह हो गया। मूसाई बड़ा प्रसन्न था। उसकी स्त्री बहुत भली थी। वह मूसाई और उसकी माताकी मन लगाकर सेवा करती थी। वह घरका सब काम अपने आप कर लेती थी। गुसाईकी माता तो अपने बेटेकी स्त्री की गाँवभर प्रशंसा ही करती फिरती थी। उसे घरके किसी काममें तनिक भी हाथ नहीं लगाना पड़ता था। भाग्यकी बात- -देशमें अकाल पड़ा। खेतों में कुछ हुआ नहीं। मूसाई मजदूरीकी खोजमें माता तथा स्त्रीके साथ टोकियो नगरमें आया। मजदूरी कहीं जल्दी मिलती है? मूसाईके पासके पैसे खर्च हो गये थे। उसको उपवास करना पड़ा। तब उसकी स्त्रीने कहा-'मैं मलमल बना दूँ

कछुआ गुरु

 एक बूढ़े आदमी थे। गंगा किनारे रहते थे। उन्होंने एक झोपड़ी बना ली थी । झोपड़ीमें एक तख्ता था, जलसे भरा मिट्टीका एक घड़ा रहता था और उन्होंने एक कछुआ पाल रखा था। पासकी बस्तीमें दोपहरमें रोटी माँगने जाते तो थोड़े चने भी माँग लाते। वे कछुएको भीगे चने खिलाया करते थे । एक दिन किसीने पूछा-'आपने यह क्या गंदा जीव पाल रखा है, फेंक दीजिये इसे गंगाजीमें।' बूढ़े बाबा बड़े बिगड़े। वे कहने लगे-" -तुम मेरे गुरु बाबाका अपमान करते हो? देखते नहीं कि तनिक-सी आहट पाकर या किसीके साधारण स्पर्शसे वे अपने सब अंग भीतर खींचकर कैसे गुड़मुड़ी हो जाते हैं। चाहे जितना हिलाओ डुलाओ, वे एक पैरतक न हिलायेंगे । 'इससे क्या हो गया ?' उसने पूछा । 'हो क्यों नहीं गया!' मनुष्यको भी इसी प्रकार सावधान रहना लोभ-लालच और भीड़-भाड़में नेत्र मूंदकर राम-राम करना चाहिये । सच्ची बात तो यह है कि वे किसीको देखते ही भागकर झोपड़ीमें घुस जाते थे और जोर-जोरसे 'राम-राम' बोलने लगते । पुकारनेपर बोलते ही नहीं थे। आज पता नहीं, बोल रहे थे। कैसे उस आदमीने कहा–'चाहे जो हो, यह बड़ा घिनोना दीखता है।' बूढ़े बाबा

मुझे मनुष्य चाहिये

 एक मन्दिर था आसाममें। खूब बड़ा मन्दिर था। उसमें हजारों यात्री दर्शन करने आते थे। सहसा उसका प्रबन्धक प्रधान पुजारी मर गया। मन्दिरके महन्तको दूसरे पुजारीकी आवश्यकता हुई। उन्होंने घोषणा करा दी कि जो कल सबेरे पहले पहर आकर यहाँ पूजासम्बन्धी जाँचमें ठीक सिद्ध होगा, उसे पुजारी रखा जायगा। मन्दिर बड़ा था। पुजारीको बहुत आमदनी थी। बहुत-से ब्राह्मण सबेरे पहुँचनेके लिये चल पड़े। मन्दिर पहाड़ीपर था। एक ही रास्ता था। उसपर भी काँटे और कंकड़-पत्थर थे। ब्राह्मणोंकी भीड़ चली जा रही थी मन्दिरकी ओर किसी प्रकार काँटे और कंकड़ोंसे बचते हुए लोग जा रहे थे। सब ब्राह्मण पहुँच गये। महन्तने सबको आदरपूर्वक बैठाया। सबको भगवान्का प्रसाद मिला। सबसे अलग अलग कुछ प्रश्न और मन्त्र पूछे गये। अन्तमें परीक्षा पूरी हो गयी। जब दोपहर हो गयी और सब लोग उठने लगे तो एक नौजवान ब्राह्मण वहाँ आया। उसके कपड़े फटे थे। वह पसीनेसे भीग गया था और बहुत गरीब जान पड़ता था। महन्तने कहा- 'तुम बहुत देरसे आये!' वह ब्राह्मण बोला- 'मैं जानता हूँ। मैं केवल भगवान्का दर्शन करके लौट जाऊँगा।' महन्त उसकी दशा देखकर दयालु हो रहे थे। बोले- &

बाबाजी गये चोरी करने

एक बाबाजी एक दिन अपने आश्रमसे चले गंगाजी नहाने। बाबाजी धोखेसे आधी रातको ही निकल पड़े थे। रास्ते में उनको चोरोंका एक दल मिला। चोरोंने बाबाजीसे कहा- 'या तो हमारे साथ चोरी करने चलो, नहीं तो मार डालेंगे।' बेचारे बाबाजी क्या करते, उनके साथ हो लिये। चोरोंने एक अच्छे से घरमें सेंध लगायी। एक चोर बाहर रहा और सब भीतर गये। साधु बाबाको भी वे लोग भीतर ले गये। चोर तो लगे संदूक ढूँढ़ने, तिजोरी तोड़ने। बाबाजीने देखा कि एक ओर सिंहासनपर ठाकुरजी विराजमान हैं। उन्होंने सोचा-'आ गये हैं तो हम भी कुछ करें। ये ठाकुरजीकी पूजा करने बैठ गये।' बाबाजीने चन्दन घिसा। धूपबत्ती ठीक की और लगे इधर-उधर भोग ढूँढ़ने वहाँ कुछ प्रसाद था नहीं सोचा, ठाकुरजीके जगनेपर कोई सती-सेवक आ जायगा तो उससे भोग मँगा लेंगे। ठाकुरजी तो रेशमी दुपट्टा ताने सो रहे थे। पूजाके लिये उनको जगाना आवश्यक था। बाबाजीने उठाया शंख और लगे 'धूतूधू' करने । ठाकुरजी तो पता नहीं जगे या नहीं, पर घरके सब सोये लोग चौंककर जाग पड़े। सब चोर सिरपर पैर रखकर भाग खड़े हुए। घरके लोगोंने दौड़कर बाबाजीको पकड़ा। बाबाजीने कहा- 'चिल्लाओ मत ठाकुरजीको भ

पाखण्डका परिणाम

 एक सियार था। एक दिन उसे जंगलमें कुछ खानेको न मिला। बड़ी भूख लगी थी। अन्तमें वह बस्तीमें कुछ खानेकी खोजमें आया। अँधेरी रात थी। लोग सो गये थे। जाड़ेका दिन था। घरोंके दरवाजे बंद थे। सियार गली-गली भटकता फिरा । एक धोबीका घर था। गधे बँधे थे। एक नाँदमें कपड़े भीग रहे थे और एकमें कुछ और था। सियारको गन्ध-सी आयी। सोचा, शायद कुछ पेटमें डालनेको मिल जाय । नाँद ऊँची थी । कूदा और नाँदमें गिर पड़ा। जाड़ेके दिन, रात्रिका समय, ठंडे पानी में गिरनेसे दुर्दशा हो गयी । कूदा और थर-थर काँपता सीधा जंगलकी ओर भागा। प्रातः काल नालेके पानीसे पेट भरने गया । पानीमें छाया देखकर दंग रह गया। रातको वह नीलकी नाँदमें गिर पड़ा था। सूरत बदल गयी थी। बड़ा प्रसन्न हुआ। जंगलमें जानवरोंकी सभा बुलायी, उसने घोषित किया कि 'मैं नीलाकर हूँ। मुझे ब्रह्माने जंगलका राजा बनाकर भेजा है। जो मेरी आज्ञा नहीं मानेगा, उसे बहुत भयंकर दण्ड मिलेगा।' जानवरोंने ऐसे अद्भुत रंगका पशु कहाँ देखा था। उन्होंने सियारकी बात मान ली। वह जंगलका राजा हो गया। सबपर रोब गाँठने लगा। उस सियारने शेरको अपना मन्त्री बनाया, चीतेको सेनापति बनाया। दूसरे पशुओंकी

उपकार

अफ्रीका बड़ा भारी देश है। उस देशमें बहुत घने वन हैं और उन वनोंमें सिंह, भालू, गैंडा आदि भयानक पशु बहुत होते हैं। बहुत से लोग सिंहका चमड़ा पानेके लिये उसे मारते हैं। गरमीके दिनों में हाथी जिस रास्ते झरनेपर पानी पीने जाते हैं, उस रास्तेमें लोग बड़ा भारी गहरा गड्ढा खोद देते हैं और उस गड्ढेके चारों ओर लकड़ियोंको भालेके समान नोंकवाली करके गाड़ देते हैं। फिर गड्ढेको पतली लकड़ियों और पत्तोंसे ढक देते हैं। जब हाथी पानी पीने निकलते हैं तो उनके दलका आगेका हाथी गड्ढेके ऊपर टहनियोंके कारण गड्ढेको देख नहीं पाता और जैसे ही टहनियोंपर पैर रखता है, टहनियाँ टूट जाती हैं और हाथी गड्ढे में गिर जाता है। पीछे हाथी पकड़नेवाले गड्ढेमें एक ओर रास्ता खोदकर दूसरे पालतू हाथियोंकी सहायतासे उस हाथीको पकड़ लाते हैं। हाथी पकड़नेवाले उस हाथीको लाकर पहले कई दिन भूखा रखते हैं। गड्ढेमें भी हाथी कई दिन भूखा रखा जाता है, जिससे कमजोर हो जानेके कारण निकलते समय बहुत धूम न मचावे । भूखके मारे जब हाथी छटपटाने लगता है, तब कोई आदमी उसे चारा देने जाता है। चारा देनेके बहाने वह आदमी हाथीसे धीरे-धीरे जान-पहचान कर लेता है और फिर हाथीको