Posts

Showing posts from March, 2022

सर्वस्व दान

 एक पुराना मन्दिर था। दरारें पड़ी थीं। खूब जोरसे वर्षा हुई और हवा चली । मन्दिरका बहुत-सा भाग लड़खड़ाकर गिर पड़ा। उस दिन एक साधु वर्षामें उस मन्दिरमें आकर ठहरे थे। भाग्यसे वे जहाँ बैठे थे, उधरका कोना बच गया। साधुको चोट नहीं लगी। साधुने सबेरे पासके बाजारमें चंदा करना प्रारम्भ किया। उन्होंने सोचा – 'मेरे रहते भगवान्का मन्दिर गिरा है तो इसे बनवाकर तब मुझे कहीं जाना चाहिये।' बाजारवालोंमें श्रद्धा थी। साधु विद्वान् थे। उन्होंने घर-घर जाकर चंदा एकत्र किया । मन्दिर बन गया। भगवान्की मूर्तिकी बड़े भारी उत्सवके साथ पूजा हुई । भण्डारा हुआ। सबने आनन्दसे भगवान्का प्रसाद लिया। भण्डारेके दिन शामको सभा हुई। साधु बाबा दाताओंको धन्यवाद देनेके लिये खड़े हुए। उनके हाथमें एक कागज था । उसमें लम्बी सूची थी। उन्होंने कहा–'सबसे बड़ा दान एक बुढ़िया माताने दिया है। वे स्वयं आकर दे गयी थीं।' लोगोंने सोचा कि अवश्य किसी बुढ़ियाने सौ-दो-सौ रुपये दिये होंगे। कई लोगोंने सौ रुपये दिये थे। लेकिन सबको बड़ा आश्चर्य हुआ। जब बाबाने कहा- " उन्होंने मुझे चार आने पैसे और थोड़ा-सा आटा दिया है।' लोगोंने समझ

असभ्य आचार्य

 एक ग्राममें एक लड़का रहता था। उसके पिताने उसे पढ़ने काशी भेज दिया। उसने पढ़नेमें परिश्रम किया। ब्राह्मणका लड़का था, बुद्धि तेज थी। जब वह काशीसे अपने ग्राममें लौटा तब व्याकरणका आचार्य हो गया था। गाँवमें दूसरा कोई पढ़ा-लिखा था नहीं। सब लोग उसका आदर करते थे। इससे उसका घमण्ड बढ़ गया। एक बार उस गाँवमें बारात आयी। बारातमें दो-तीन बूढ़े पण्डित थे। विवाहमें शास्त्रार्थ तो होता ही है। जब सब लोग बैठे, तब शास्त्रार्थकी बारी आयी। सबसे पहले उस घमण्डी लड़केने ही प्रश्न किया । पण्डितोंने धीरेसे उत्तर दे दिया। अब पण्डितोंमें से एकने उससे पूछा- 'असभ्य किसे कहते हैं?' लड़केने बड़े रोबसे उत्तर दिया- 'जो बड़ोंका आदर न करे और उनके सामने उद्दण्ड व्यवहार करे।' 'सम्भवतः आप यह भी मान लेंगे कि असभ्य पुरुषसे बोलनेवाला भी असभ्य ही होता है।' 'निश्चय!' लड़केने बड़े जोशसे स्वीकार किया। 'तब मैं आपसे बोलना बंद करता हूँ।' वृद्ध पण्डित मुसकरा पड़े। 'अर्थात् ?' 'लड़का क्रोधसे लाल हो उठा। 'आपके पूज्य पिता तो वहाँ पीछे बैठे हैं और आप यहाँ डटे हैं। एक बार बुला तो लेना

संतोषका फल

  विलायतमें अकाल पड़ गया। लोग भूखों मरने लगे। एक छोटे नगरमें एक धनी दयालु पुरुष थे। उन्होंने सब छोटे लड़कोंको प्रतिदिन एक रोटी देनेकी घोषणा कर दी। दूसरे दिन सबेरे एक बगीचेमें सब लड़के इकट्ठे हुए। उन्हें रोटियाँ बँटने लगीं। रोटियाँ छोटी-बड़ी थीं। सब बच्चे एक-दूसरेको धक्का देकर बड़ी रोटी पानेका प्रयत्न कर रहे थे। केवल एक छोटी लड़की एक ओर चुपचाप खड़ी थी। वह सबके अन्तमें आगे बढ़ी। टोकरेमें सबसे छोटी अन्तिम रोटी बची थी। उसने उसे प्रसन्नतासे ले लिया और वह घर चली आयी। दूसरे दिन फिर रोटियाँ बाँटी गयीं। उस लड़कीको आज भी सबसे छोटी रोटी मिली। लड़कीने जब घर लौटकर रोटी तोड़ी तो रोटीमेंसे सोनेकी एक मुहर निकली। उसकी माताने कहा कि–'मुहर उस धनीको दे आओ।' लड़की दौड़ी गयी मुहर देने। धनीने उसे देखकर पूछा- 'तुम क्यों आयी हो ?' लड़कीने कहा–'मेरी रोटीमें यह मुहर निकली है। आटेमें गिर गयी होगी। देने आयी हूँ। तुम अपनी मुहर ले लो।' धनीने कहा–'नहीं बेटी! यह तुम्हारे संतोषका पुरस्कार है। लड़कीने सिर हिलाकर कहा–'पर मेरे संतोषका फल तो मुझे तभी मिल गया था। मुझे धक्के नहीं खाने पड़े।

मनुष्य या पशु ?

 एक सच्ची घटना है। नाम मैं नहीं बताऊँगा। बहुत-से लड़के पाठशालासे निकले। पढ़ाईके बीचमें दोपहरकी छुट्टी हो गयी थी। सब लड़के उछलते-कूदते, हँसते-चिल्लाते जा रहे थे। पाठशालाके फाटकके सामने सड़कपर एक आदमी भूमिपर लेटा था। किसीने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। सब अपनी धुनमें चले जा रहे थे । एक छोटे लड़केने उस आदमीको देखा, वह उसके पास गया। वह आदमी बीमार था। उसने लड़केसे पानी माँगा। लड़का पासके घरसे पानी ले आया। बीमारने पानी पीया और फिर लेट गया। लड़का पानीका बर्तन जिसका था, उसे देकर खेलने चला गया। शामको वह लड़का घर आया। इसने सुना कि उसके पितासे एक सज्जन बता रहे हैं कि 'पाठशालाके सामने दोपहरके बाद एक आदमी आज सड़कपर मर गया। लड़का पिताके पास गया और उसने कहा- 'बाबूजी! वह तो सड़कपर पड़ा था। माँगनेपर मैंने उसे पानी पिलाया था।' पिता बहुत नाराज हुए। उन्होंने लड़केको कहा—'तुम मेरे सामनेसे भाग जाओ! तुमने एक बीमार आदमीको देखकर भी छोड़ दिया। उसे अस्पताल क्यों नहीं पहुँचाया? तुम मनुष्य नहीं पशु हो ।' डरते-डरते लड़केने कहा- 'मैं अकेला था । भला, उसे अस्पताल कैसे ले जाता ?' पिताने डाँटा–

डॉक्टर साहब पिटे

 एक डॉक्टर साहब हैं। खूब बड़े नगरमें रहते हैं। उनके यहाँ रोगियोंकी बड़ी भीड़ रहती है। घर बुलानेपर उनको फीसके बहुत रुपये देने पड़ते हैं। वे बड़े प्रसिद्ध हैं। उनकी दवासे रोगी बहुत शीघ्र अच्छे हो जाते हैं। डॉक्टर साहबके लिये प्रसिद्ध है कि कोई गरीब उन्हें घर बुलाने आवे तो वे तुरंत अपने ताँगेपर बैठकर देखने चले जाते हैं। उसे बिना दाम लिये दवा देते हैं और आवश्यकता हुई तो रोगीको दूध देनेके लिये पैसे भी दे आते हैं। डॉक्टर साहबने बताया कि उस समय हमारे पिता जीवित थे। मैंने डॉक्टरीकी नयी-नयी दूकान खोली थी। पर, मेरी डॉक्टरी अच्छी चल गयी थी। एक दिन दूर गाँवसे एक किसान आया। उसने प्रार्थना की कि 'मेरी स्त्री बहुत बीमार है। डॉक्टर साहब! चलकर उसे देख आवें।' डॉक्टरने कहा-'इतनी दूर मैं बिना बीस रुपये लिये नहीं जा सकता। मेरी फीस यहाँ दे दो और ताँगा ले आओ तो मैं चलूंगा।' किसान बहुत गरीब था। उसने डॉक्टरके पैरोंपर पाँच रुपये रख दिये। वह रोने लगा और बोला- 'मेरे पास और रुपये नहीं हैं। आप मेरे घर चलें। मैं ताँगा ले आता हूँ। आपके पंद्रह रुपये फसल होनेपर अवश्य दे जाऊँगा।' डॉक्टर साहबने उस

नरककी यात्रा

 'यह तो बड़ा भयानक नरक है।' महाराज युधिष्ठिरको धर्मराजके दूत नरक दिखला रहे थे। महाराज युधिष्ठिरने केवल एक बार आधा झूठ कहा था कि 'अश्वत्थामा मर गया, मनुष्य नहीं हाथी ।' सत्यको इस प्रकार घुमा-फिराकर बोलनेके कारण उन्हें नरकको केवल देख लेनेका दण्ड मिला था। उन्होंने अनेक नरक देखे। कहीं किसीको बिच्छू-सर्प काट रहे थे; कहीं किसीको जीते-जी कुत्ते, सियार या गीध नोच रहे थे; कोई आरेसे चीरा जा रहा था और कोई तेलमें उबाला जा रहा था। इस प्रकार पापियोंको बड़े कठोर दण्ड दिये जा रहे थे। युधिष्ठिरने यमदूतसे कहा–'ये तो बड़े भयंकर दण्ड हैं। कौन मनुष्य यहाँ दण्ड पाते हैं?' यमदूतने नम्रतासे कहा- 'हाँ महाराज! ये बड़े भयंकर दण्ड हैं। यहाँ केवल वे ही मनुष्य आते हैं, जो जीवोंको मारते हैं, मांस खाते हैं, दूसरोंका हक छीनते हैं तथा और भी बड़े पाप करते हैं।' लोग हाय-हाय कर रहे थे । चिल्ला रहे थे। पर युधिष्ठिरके वहाँ रहनेसे उनके कष्ट मिट गये; वे कहने लगे-आप यहीं रुके रहिये।' युधिष्ठिर वहीं रुक गये। तब स्वयं धर्मराज और इन्द्रने आकर उनको समझाया और कहा कि आपने एक बार छलभरी बात कही थी, उ

सबसे बड़ा धर्मात्मा

 एक राजाके चार लड़के थे। राजाने उनको बुलाकर बताया कि 'जो सबसे बड़े धर्मात्माको ढूँढ़ लायेगा, वही राज्यका अधिकार पायेगा।' चारों लड़के घोड़ोंपर सवार हुए और दिशाओं में चले गये। एक दिन बड़ा लड़का लौटा। उसने पिताके सामने एक सेठजीको खड़ा कर दिया और बताया- 'ये सेठजी सदा हजारों रुपये दान करते हैं। इन्होंने बहुत से मन्दिर बनवाये हैं, तालाब खुदवाये हैं और अनेक स्थानपर इनकी ओरसे प्याऊ चलते हैं। तीर्थोंमें इनके सदाव्रत चलते हैं, ये नित्य कथा सुनते हैं, साधु-ब्राह्मणोंको भोजन कराकर भोजन करते हैं। गौ-पूजन करते हैं, इनसे बड़ा धर्मात्मा संसारमें कोई नहीं है।' राजाने कहा – 'ये निश्चय धर्मात्मा हैं।' सेठजीका आदर सत्कार हुआ और वे गये । दूसरा लड़का एक दुबले-पतले ब्राह्मणको लेकर लौटा। उसने कहा—'इन विप्रदेवने चारों धामों तथा सातों पुरियोंकी पैदल यात्रा की है। ये सदा चान्द्रायणव्रत ही करते रहते हैं। झूठसे तो सदा डरते हैं। इन्हें क्रोध करते किसीने कभी नहीं देखा | नियमसे मन्त्र जप करके तब जल पीते हैं। तीनों समय स्नान करके संध्या करते हैं। इस समय विश्वमें ये सबसे बड़े धर्मात्मा हैं।

सत्य बोलो

 एक डाकू था । डाके डालता, लोगोंको मारता और उनके रुपये, बर्तन, कपड़े, गहने लेकर चम्पत हो जाता। पता नहीं, कितने लोगोंको उसने मारा। पता नहीं कितने पाप किये। एक स्थानपर कथा हो रही थी। कोई साधु कथा कह रहे थे। बड़े-बड़े लोग आये थे। डाकू भी गया। उसने सोचा 'कथा समाप्त होनेपर रात्रि हो जायगी। कथामेंसे जो बड़े आदमी घर लौटेंगे, उनमें से किसीको मौका देखकर लूट लूँगा।' कोई कैसा भी हो, वह जैसे समाजमें जाता है, उस समाजका प्रभाव उसपर अवश्य पड़ता है। भगवान् की कथा और सत्संगमें थोड़ी देर बैठने या वहाँ कुछ देरको किसी दूसरे बहानेसे जानेमें भी लाभ ही होता है। उस कथा-सत्संगका मनपर कुछ-न-कुछ प्रभाव अवश्य पड़ता है। कथा सुनकर उसको लगा कि साधु तो बड़े अच्छे हैं। उसे कथा सुनकर मृत्युका डर लगा था। और मरनेपर पापोंका दण्ड मिलेगा, यह सुनकर वह घबरा गया था। वह साधुके पास गया। 'महाराज! मैं डाकू हूँ। डाका डालना तो मुझसे छूट नहीं सकता। क्या मेरे भी उद्धारका कोई उपाय है? उसने साधुसे पूछा। साधुने सोचकर कहा–'तुम झूठ बोलना छोड़ दो ।' डाकूने स्वीकार कर लिया और लौट पड़ा। कथासे लौटनेवाले घर चले गये थे। डाकूने

बगुला उड़ गया

 जापानमें एक साधारण चरवाहा था। उसका नाम था गुसाई। एक दिन वह गायें चरा रहा था। एक बगुला उड़ता आया और उसके पैरोंके पास गिर पड़ा। गुसाईने बगुलेको उठा लिया। सम्भवतः बाजने बगुलेको घायल कर दिया था। उजले पखोंपर रक्तके लाल-लाल बिन्दु थे। बेचारा पक्षी बार-बार मुख फाड़ रहा था। मूसाईने प्यारसे उसपर हाथ फेरा जलके समीप ले जाकर उसके पंख धोये। थोड़ा जल चोंचमें डाल दिया पक्षीमें साहस आया। थोड़ी देर में वह उड़ गया। इसके थोड़े दिन पीछे एक सुन्दर धनवान् लड़कीने गुसाईकी मातासे प्रार्थना की और उससे मुसाईका विवाह हो गया। मूसाई बड़ा प्रसन्न था। उसकी स्त्री बहुत भली थी। वह मूसाई और उसकी माताकी मन लगाकर सेवा करती थी। वह घरका सब काम अपने आप कर लेती थी। गुसाईकी माता तो अपने बेटेकी स्त्री की गाँवभर प्रशंसा ही करती फिरती थी। उसे घरके किसी काममें तनिक भी हाथ नहीं लगाना पड़ता था। भाग्यकी बात- -देशमें अकाल पड़ा। खेतों में कुछ हुआ नहीं। मूसाई मजदूरीकी खोजमें माता तथा स्त्रीके साथ टोकियो नगरमें आया। मजदूरी कहीं जल्दी मिलती है? मूसाईके पासके पैसे खर्च हो गये थे। उसको उपवास करना पड़ा। तब उसकी स्त्रीने कहा-'मैं मलमल बना दूँ

कछुआ गुरु

 एक बूढ़े आदमी थे। गंगा किनारे रहते थे। उन्होंने एक झोपड़ी बना ली थी । झोपड़ीमें एक तख्ता था, जलसे भरा मिट्टीका एक घड़ा रहता था और उन्होंने एक कछुआ पाल रखा था। पासकी बस्तीमें दोपहरमें रोटी माँगने जाते तो थोड़े चने भी माँग लाते। वे कछुएको भीगे चने खिलाया करते थे । एक दिन किसीने पूछा-'आपने यह क्या गंदा जीव पाल रखा है, फेंक दीजिये इसे गंगाजीमें।' बूढ़े बाबा बड़े बिगड़े। वे कहने लगे-" -तुम मेरे गुरु बाबाका अपमान करते हो? देखते नहीं कि तनिक-सी आहट पाकर या किसीके साधारण स्पर्शसे वे अपने सब अंग भीतर खींचकर कैसे गुड़मुड़ी हो जाते हैं। चाहे जितना हिलाओ डुलाओ, वे एक पैरतक न हिलायेंगे । 'इससे क्या हो गया ?' उसने पूछा । 'हो क्यों नहीं गया!' मनुष्यको भी इसी प्रकार सावधान रहना लोभ-लालच और भीड़-भाड़में नेत्र मूंदकर राम-राम करना चाहिये । सच्ची बात तो यह है कि वे किसीको देखते ही भागकर झोपड़ीमें घुस जाते थे और जोर-जोरसे 'राम-राम' बोलने लगते । पुकारनेपर बोलते ही नहीं थे। आज पता नहीं, बोल रहे थे। कैसे उस आदमीने कहा–'चाहे जो हो, यह बड़ा घिनोना दीखता है।' बूढ़े बाबा

मुझे मनुष्य चाहिये

 एक मन्दिर था आसाममें। खूब बड़ा मन्दिर था। उसमें हजारों यात्री दर्शन करने आते थे। सहसा उसका प्रबन्धक प्रधान पुजारी मर गया। मन्दिरके महन्तको दूसरे पुजारीकी आवश्यकता हुई। उन्होंने घोषणा करा दी कि जो कल सबेरे पहले पहर आकर यहाँ पूजासम्बन्धी जाँचमें ठीक सिद्ध होगा, उसे पुजारी रखा जायगा। मन्दिर बड़ा था। पुजारीको बहुत आमदनी थी। बहुत-से ब्राह्मण सबेरे पहुँचनेके लिये चल पड़े। मन्दिर पहाड़ीपर था। एक ही रास्ता था। उसपर भी काँटे और कंकड़-पत्थर थे। ब्राह्मणोंकी भीड़ चली जा रही थी मन्दिरकी ओर किसी प्रकार काँटे और कंकड़ोंसे बचते हुए लोग जा रहे थे। सब ब्राह्मण पहुँच गये। महन्तने सबको आदरपूर्वक बैठाया। सबको भगवान्का प्रसाद मिला। सबसे अलग अलग कुछ प्रश्न और मन्त्र पूछे गये। अन्तमें परीक्षा पूरी हो गयी। जब दोपहर हो गयी और सब लोग उठने लगे तो एक नौजवान ब्राह्मण वहाँ आया। उसके कपड़े फटे थे। वह पसीनेसे भीग गया था और बहुत गरीब जान पड़ता था। महन्तने कहा- 'तुम बहुत देरसे आये!' वह ब्राह्मण बोला- 'मैं जानता हूँ। मैं केवल भगवान्का दर्शन करके लौट जाऊँगा।' महन्त उसकी दशा देखकर दयालु हो रहे थे। बोले- &

बाबाजी गये चोरी करने

एक बाबाजी एक दिन अपने आश्रमसे चले गंगाजी नहाने। बाबाजी धोखेसे आधी रातको ही निकल पड़े थे। रास्ते में उनको चोरोंका एक दल मिला। चोरोंने बाबाजीसे कहा- 'या तो हमारे साथ चोरी करने चलो, नहीं तो मार डालेंगे।' बेचारे बाबाजी क्या करते, उनके साथ हो लिये। चोरोंने एक अच्छे से घरमें सेंध लगायी। एक चोर बाहर रहा और सब भीतर गये। साधु बाबाको भी वे लोग भीतर ले गये। चोर तो लगे संदूक ढूँढ़ने, तिजोरी तोड़ने। बाबाजीने देखा कि एक ओर सिंहासनपर ठाकुरजी विराजमान हैं। उन्होंने सोचा-'आ गये हैं तो हम भी कुछ करें। ये ठाकुरजीकी पूजा करने बैठ गये।' बाबाजीने चन्दन घिसा। धूपबत्ती ठीक की और लगे इधर-उधर भोग ढूँढ़ने वहाँ कुछ प्रसाद था नहीं सोचा, ठाकुरजीके जगनेपर कोई सती-सेवक आ जायगा तो उससे भोग मँगा लेंगे। ठाकुरजी तो रेशमी दुपट्टा ताने सो रहे थे। पूजाके लिये उनको जगाना आवश्यक था। बाबाजीने उठाया शंख और लगे 'धूतूधू' करने । ठाकुरजी तो पता नहीं जगे या नहीं, पर घरके सब सोये लोग चौंककर जाग पड़े। सब चोर सिरपर पैर रखकर भाग खड़े हुए। घरके लोगोंने दौड़कर बाबाजीको पकड़ा। बाबाजीने कहा- 'चिल्लाओ मत ठाकुरजीको भ

पाखण्डका परिणाम

 एक सियार था। एक दिन उसे जंगलमें कुछ खानेको न मिला। बड़ी भूख लगी थी। अन्तमें वह बस्तीमें कुछ खानेकी खोजमें आया। अँधेरी रात थी। लोग सो गये थे। जाड़ेका दिन था। घरोंके दरवाजे बंद थे। सियार गली-गली भटकता फिरा । एक धोबीका घर था। गधे बँधे थे। एक नाँदमें कपड़े भीग रहे थे और एकमें कुछ और था। सियारको गन्ध-सी आयी। सोचा, शायद कुछ पेटमें डालनेको मिल जाय । नाँद ऊँची थी । कूदा और नाँदमें गिर पड़ा। जाड़ेके दिन, रात्रिका समय, ठंडे पानी में गिरनेसे दुर्दशा हो गयी । कूदा और थर-थर काँपता सीधा जंगलकी ओर भागा। प्रातः काल नालेके पानीसे पेट भरने गया । पानीमें छाया देखकर दंग रह गया। रातको वह नीलकी नाँदमें गिर पड़ा था। सूरत बदल गयी थी। बड़ा प्रसन्न हुआ। जंगलमें जानवरोंकी सभा बुलायी, उसने घोषित किया कि 'मैं नीलाकर हूँ। मुझे ब्रह्माने जंगलका राजा बनाकर भेजा है। जो मेरी आज्ञा नहीं मानेगा, उसे बहुत भयंकर दण्ड मिलेगा।' जानवरोंने ऐसे अद्भुत रंगका पशु कहाँ देखा था। उन्होंने सियारकी बात मान ली। वह जंगलका राजा हो गया। सबपर रोब गाँठने लगा। उस सियारने शेरको अपना मन्त्री बनाया, चीतेको सेनापति बनाया। दूसरे पशुओंकी

उपकार

अफ्रीका बड़ा भारी देश है। उस देशमें बहुत घने वन हैं और उन वनोंमें सिंह, भालू, गैंडा आदि भयानक पशु बहुत होते हैं। बहुत से लोग सिंहका चमड़ा पानेके लिये उसे मारते हैं। गरमीके दिनों में हाथी जिस रास्ते झरनेपर पानी पीने जाते हैं, उस रास्तेमें लोग बड़ा भारी गहरा गड्ढा खोद देते हैं और उस गड्ढेके चारों ओर लकड़ियोंको भालेके समान नोंकवाली करके गाड़ देते हैं। फिर गड्ढेको पतली लकड़ियों और पत्तोंसे ढक देते हैं। जब हाथी पानी पीने निकलते हैं तो उनके दलका आगेका हाथी गड्ढेके ऊपर टहनियोंके कारण गड्ढेको देख नहीं पाता और जैसे ही टहनियोंपर पैर रखता है, टहनियाँ टूट जाती हैं और हाथी गड्ढे में गिर जाता है। पीछे हाथी पकड़नेवाले गड्ढेमें एक ओर रास्ता खोदकर दूसरे पालतू हाथियोंकी सहायतासे उस हाथीको पकड़ लाते हैं। हाथी पकड़नेवाले उस हाथीको लाकर पहले कई दिन भूखा रखते हैं। गड्ढेमें भी हाथी कई दिन भूखा रखा जाता है, जिससे कमजोर हो जानेके कारण निकलते समय बहुत धूम न मचावे । भूखके मारे जब हाथी छटपटाने लगता है, तब कोई आदमी उसे चारा देने जाता है। चारा देनेके बहाने वह आदमी हाथीसे धीरे-धीरे जान-पहचान कर लेता है और फिर हाथीको

प्रत्युपकार

शेरकी गुफा थी। खूब गहरी, खूब अँधेरी। उसीमें बिल बनाकर एक छोटी चुहिया भी रहती थी। शेर जो शिकार लाता, उसकी बची हड्डियोंमें लगा मांस चुहियाके लिये बहुत था। शेर जब जंगलमें चला जाता, तब वह बिलसे निकलती और हड्डियोंमें लगे मांसको कुतरकर पेट भर लेती। खूब मोटी हो गयी थी वह । एक दिन शेर दोपहरमें सोया था। चुहियाको भूख लगी। वह बिलसे बाहर निकली और उसने अपना पेट भर लिया। पास रहते-रहते उसका भय दूर हो गया था। पेट भर जानेपर वह शेरके शरीरपर चढ़ गयी। शेरका कोमल चिकना शरीर उसे बहुत पसंद आया। उसे बड़ा आनन्द आया वह उसके पैर, पीठ, गर्दन और मुखपर इधर-से-उधर दौड़ने लगी। इस धमाचौकड़ीमें शेरकी नींद खुल गयी। उसने पंजा उठाकर चुहियाको पकड़ लिया और डाँटा- 'वयों री, मेरे शरीरपर यह क्या ऊधम मचा रखा है तूने ?' चुहियाकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। अब मरी तब मरी। किसी प्रकार काँपते-काँपते बोली- 'महाराज! मुझसे सचमुच बड़ा भारी अपराध हो गया! पर आप समर्थ हैं, यदि मुझे क्षमा करके प्राणदान दे दें तो मैं शक्तिभर आपकी सेवा करूँगी।' शेर हँस पड़ा। उसने चुहियाको छोड़ते हुए कहा- 'जा, तू मेरी सेवा तो क्या करेगी और जंग

उसने रामायण पढ़ी होती

हुएन सांगची लाऊ, यही नाम था उसका। पिता उसे सांग कहते थे। जी चाहे तो आप भी इसी नामसे पुकारिये । उसका पिता शिकारी था। रीछ फँसाता, हिरन मारता और फिर उनके चमड़े बेच डालता। यही रोजगार था बाप-दादोंसे उसके घरका । एक दिन पिताने उसे एक बड़े पेड़की छायामें बैठा दिया और स्वयं बंदूक लेकर एक ओर जंगलमें चला गया । घरमें न माँ है और न कोई भाई-बहिन । इसलिये सूने घरमें उसका मन लगता नहीं था। मास्टरजीकी बेंतके डरसे वह पाठशाला नहीं जाता। दूसरे लड़के पढ़ने चले जाते हैं। भला, गाँवमें किसके साथ खेले ? पिताके साथ रोज जंगलमें जाता है। कभी चिड़ियोंको है, कभी खरगोशके पीछे दौड़ता है। झरबेरी और आडू भी खानेको मिल जाते हैं। वह शिकारीका लड़का है। उसे अकेले जंगलमें दौड़ने और खेलनेमें डर नहीं लगता।  एक दिन पिताके चले जानेपर वह घूम रहा था । एक ओरसे'खों-खों की आवाज आयी। वह देखने दौड़ गया। एक बड़ा सा रीछ कँटीली झाड़ियों में उलझ गया था। बड़े-बड़े बालोंमें काँटे फँसे थे। एक ओरसे काँटे छुड़ाता तो दूसरी ओर उलझ जाते। रीछ घबरा गया था। लड़केको दया आ गयी। वह पास चला गया। उसने काँटे छुड़ाकर रीछको छुटकारा दे दिया।  रीछ बड़े जोरस

रीछ की समझदारी

 वह शिकार खेलने गया था। लम्बी मारकी बंदूक थी और कन्धेपर कारतूसोंकी पेटी पड़ी थी। सामने ऊँचा पर्वत दूरतक चला गया था। पर्वतसे लगा हुआ खड्डा था, कई हजार फीट गहरा । पतली-सी पगडंडी पर्वतके बीचसे खड्डेड्के उस पारतक जाती थी। उस पार जंगली बेर हैं और इस समय खूब पके हैं। वह जानता था कि रीछ बेर खाने जाते होंगे। उसने देखा, एक छोटा रीछ इस पारसे पगडंडीपर होकर उस पार जा रहा है । गोली मारनेसे रीछ खड्ढेमें गिर पड़ेगा। कोई लाभ न देखकर वह चुपचाप खड़ा रहा। दूरबीन लगाते ही उसने देखा कि उस पारसे उसी पगडंडीपर दूसरा बड़ा रीछ इस पारको आ रहा है । 'दोनों लड़ेंगे और खड्ढेमें गिरकर मर जायँगे।' वह अपने आप बड़बड़ाया। पगडंडी इतनी पतली थी कि उसपरसे न तो पीछे लौटना सम्भव था और न दो-एक साथ निकल सकते थे। वह गौरसे देखने लगा। 'एकको गोली मार दूँ, लेकिन दूसरा चौंक जायगा और चौंकते ही वह भी गिर जायगा।' देखनेके सिवा कोई रास्ता नहीं। दोनों रीछ आमने-सामने हुए। पता नहीं, क्या वाद विवाद करने लगे अपनी भाषामें। पाँच मिनटमें ही उनका भलभलाना बंद हो गया और शिकारीने देखा कि बड़ा रीछ चुपचाप जैसे था, वैसे ही बैठ गया। छोटा उ

जैसा संग वैसा रंग

 एक बाजार में एक तोता बेचनेवाला आया। उसके पास दो पिंजड़े थे। दोनॉमें एक-एक तोता था। उसने एक तोतेका मूल्य रखा था- पाँच सौ रुपये और एकका रखा था पाँच आने पैसे। वह कहता था कि 'कोई पहले पाँच आनेवालेको लेना चाहे तो ले जाय, लेकिन कोई पहले पाँच सौ रुपयेवालेको लेना चाहेगा तो उसे दूसरा भी लेना पड़ेगा।' वहाँके राजा बाजारमें आये। तोतेवालेकी पुकार सुनकर उन्होंने हाथी रोककर पूछा-'इन दोनोंके मूल्योंमें इतना अन्तर है?' तोतेवालेने कहा – 'यह तो आप इनको ले जायँ तो अपने-आप पता लग जायगा ।' राजाने तोते ले लिये। जब रातमें वे सोने लगे तो उन्होंने कहा कि 'पाँच सौ रुपयेवाले तोतेका पिंजड़ा मेरे पलंगके पास टाँग दिया जाय।' जैसे ही प्रातः चार बजे, तोतेने कहना आरम्भ किया—'राम, राम, सीता राम!' तोतेने खूब सुन्दर भजन गाये । सुन्दर श्लोक पढ़े। राजा बहुत प्रसन्न हुए। दूसरे दिन उन्होंने दूसरे तोतेका पिंजड़ा पास रखवाया। जैसे ही सबेरा हुआ, उस तोतेने गंदी-गंदी गालियाँ बकनी आरम्भ कीं। राजाको बड़ा क्रोध आया। उन्होंने नौकरसे कहा- 'इस दुष्टको मार डालो ।' पहला तोता पास ही था। उसने न